Sunday, April 5, 2009

हास्य व्यंग्य

It has been long time(around 6-7 years) when I wrote this. Do not remember the exact reason but must be a result of mixed emotions such as anger, disappointment and may be some more in the list. I am happy that I found this today while searching some papers and gathered the courage to pen it down here and in turn face your comments :-) Those may find it more interesting who have tried to read some article with title claiming it to be satirical comedy. Hopefully you will enjoy it.
आज कल अख़बारों में प्रायः 'हास्य व्यंग्य' शीर्षक देखने को मिलता है। काफ़ी पाठक मनोरंजन के उद्देश्य से अख़बार हाथ में आते ही इसे खोल बैठने की भूल कर बैठते हैं।
यूँ तो शीर्षक से जाहिर होता है जैसे लेख में काफ़ी हास्य प्रसंग मिलेंगे पर पाठक पूरेलेख में यही ढूंढ़ता रह जाता है कि किस स्थान पर क्या पढने से उसे हंसने का अवसर प्राप्त हो सकता है।
पहली पंक्तियाँ पढ़ते समय पाठक के मन में हंसने की काफ़ी इच्छा होती है तथा शीर्षक पढ़कर तो लगता है जैसे की दिए गए शीर्षक पर ढेर सारे व्यंग्य कसे गए होंगे लेकिन जब पाठक पढ़ना शुरू करता है तो उत्सुकता धीरे- धीरे समाप्त होने लगती है। उसे अपने अरमानों की बनाई मंजिलें ध्वस्त होती दिखने लगती हैं। कुछ पंक्तियाँ पढने पर तो वह यही नहीं समझ पता की केवल उसे ही कुछ हास्यास्पद तथ्य नहीं मिल रहा है या लिखने वाले का ही ऐसा कोई इल्म नहीं था और उसने ही उसे पाठकों के हंसने के लिए नहीं बनाया है। बीच- बीच में एक आधे हँसी के शब्दों को पढने पर पाठक को अत्यन्त खुशी मिलती है तथा वह यह सोचता है की हेडिंग पढ़ना सार्थक हुआ।
लेख में ज्यादातर लेख तो नेताओं पर, भ्रस्टाचार आदि के मुद्दों पर होते हैं जिन्हें पढने पर तो नहीं लेकिन पढने के बाद इस बात पर जरूर हँसी आती है की उसने एक अच्छी बेवकूफी कर डाली है।
धीरे -धीरे पाठक को पढ़ते समय अपनी गलती का एहसास होने लगता है तथा मेरे जैसे पाठक तो उसे पूरा पढने की हिम्मत कभी ही कभी जुटा पाते हैं।
लेखों में व्यंग्य के लिए ज्यादातर उपमा अलंकार का प्रयोग कर लेखक यह समझ लेता है की मैंने पाठक के मन में भरपूर मनोरंजन के साधन उपलब्ध करा दिए हैं। कभी कभी तो पाठक लेख में यही ढूंढता रह जाता है कि पूरे लेख में उसे कहीं लेख का शीर्षक ही दिख जाए तथा अंत से दो या तीन पंक्तियों पूर्व शीर्षक पाकर पाठक खुश हो जाता है क्योंकि फिर से स्वयं को धोखा देते हुए समझने लगता है की अब तो कोई न कोई हँसी की बात या शीर्षक को सार्थक करने वाली बात मिलेगी ही किंतु ऐसा न होने पर बड़ी बेरुखी से अख़बार को बंद करके अगले अंक का इन्तेजार करता है की शायद अगले अंक में आने वाले हास्य व्यंग्य के शीर्षक का स्पष्टीकरण शायद उसे उस आने वाले लेख में मिल जाए और 'अंत भला सो सब भला' ही चरितार्थ हो सके।

3 comments:

Roopa Shenoy said...

You are gifted with the writing talent :) I am totally inspired by reading
these shayaris and article,'and trying to pen down my tgts. Please try to post this in some
good news paper.

Patali-The-Village said...

अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं ।

संगीता पुरी said...

इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!